Wednesday, 11 July 2012

मुंबई हमले: क्या सच, क्या झूठ?


प्यारे हमवतनों !
              26/11 के मुंबई हमलों की यादें किसी के जेहन से अभी गयी नहीं होंगी. लेकिन लगभग चार साल पुराने हो चुके इस केस में भारत सरकार ने अभी तक आशातीत सफलता दर्ज नहीं की है. मिला-जुलाकर अभी भी हम पकिस्तान से ये कबूल करवा नहीं पाए हैं कि ये साजिश उन्होंने ही रची थी.
 खैर चोर तो कभी मानेगा नहीं कि मैंने चोरी की है, ठीक यही हालत पाकिस्तान की है. एक समय तो रहमान मालिक साहब ने यह भी कह दिया था कि भारत द्वारा दिए गए सबूत ‘साहित्य मात्र’ है. हाफिज सईद को लेकर पाकिस्तानी हूकूमत बिलकुल आश्वस्त हैं कि उनका नाम फिजूल में खराब किया जा रहा है. बहरहाल १६८ लोगो के हत्यारों में शामिल आमिर अजमल कसाब अपनी जिंदगी के चार खूबसूरत वसंत भारतीय खुशामद में बिता चुका है. भारतीय खुफिया एजेन्सियों को अभी भी उस से कुछ और राज उगले जाने की आस है.
चीजें काफी कुछ वैसी की वैसी चल रही थी, कसाब जी रहा था, पाकिस्तान झुठला रहा था और मीडिया-जगत नयी कहानिया गढ़ता जा रहा था और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग अपने संस्करणों की दुहाई दे रहा था. लेकिन हालिया उलटफेरों के बाद सब कुछ बदल गया है. सऊदी अरब में अबू जिंदाल उर्फ जबीऊद्दीन अंसारी की गिरफ़्तारी और दिल्ही पुलिस द्वारा उसके प्रत्यर्पण के बाद सारी स्थितियां बदल चुकी है.
           देश से जुड़े मुद्दों के बजाय लेटेस्ट बोलीवुड फिल्मों पर ज्यादा ध्यान रखने वाले मेरे कुछ दोस्तों को मैं बता दूँ कि अंसारी की गिरफ़्तारी के बाद उससे हुयी पूछताछ में भारतीय एजेंसियों ने मुंबई हमलों से जुड़े सारे तार सुलझा लिए हैं. अंसारी ने ये कबूला कि:
१.       आई. एस. आई. के दो मेजर (समीर अली और इकबाल) कराची में बनाये गए अस्थायी कंट्रोल रूम से सारे निर्देश दे रहे थे.
२.       हाफिज सईद के साथ साथ खुद वो भी कंट्रोल रूम से उनसे बातें कर रहा था.
३.       डेविड कोलमन हेडली ने सिद्धिविनायक मंदिर (मुंबई) से हिंदुओं द्वारा पहना जाने वाला पवित्र लाल-धागा (रक्षा सूत्र ) २०-२० रूपये में सभी आतंकियों के लिए ख़रीदा और पहनाया.
४.       सभी आतंकियों को ‘अरूणोदय कालेज, हैदराबाद’ के स्टूडेंट्स के फर्जी पहचान-पत्र दिए गए. उन्हें हिंदू नाम दिया गया. जैसे- अजमल कसाब को ‘समीर चौधरी’, इस्माइल खान को ‘नरेश वर्मा’.
५.       लश्कर ने फर्जी संचालक ‘खड्ग सिंह’ के नाम से यू.एस. की फर्म से ‘इन्टरनेट कालिंग सर्विसेस’ प्राप्त की.
६.       खुद उसने ही कसाब सहित बाकी आतंकियों को भारतीयों जैसी हिदी सिखाई. ‘प्रशासन’ और ‘नमस्ते’ जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया गया.
७.       अबू जिंदल, जबीउद्दीन दोनों नाम उसी के हैं. और मुंबई हमलों के बाद सउदी भेजने के लिए ‘पाकिस्तानी दस्तावेजों’ को आई. एस. आई. ने ही उपलब्ध कराया.
८.       लश्कर के कहने पर वो सउदी में भारतीय कामगारों में से लश्कर के लिए योग्य लोगो की भर्ती करने गया था.
९.       आतंकियों को हिंदू पहचान देने के पीछे आई-एस. आई. का मकसद भारत में मजहबी हिंसा को बढ़ावा दे कर नयी राजनीतिक अव्यवस्था उत्पन्न करना था.
                       उपरोक्त सभी बयान अंसारी ने दिल्ही पुलिस की स्पेशल सेल और सी.बी.आई. की पूछताछ के दौरान दिए. लोगो के लिए और खासकर पाकिस्तान के लिए ये विश्वास करना मुश्किल है कि पाकिस्तान का बरसों पुराना दोस्त सउदी अरब आखिर भारतीय एजेंसियों को कैसे सहयोग कर सकता है. वो भी तब जब ‘आतंक के विरूद्ध चल रहे तथाकथित विश्व-स्तरीय युद्ध’ में पाकिस्तान की छवि दाव पर लगी हो. पर पाकिस्तान ये भूल गया कि किंग अब्दुल्लाह ‘इस्लाम’ और ‘जिहाद’ के सही मायनों से वास्ता रखते हैं और उनकी नजर में कमीने भाई से ज्यादा अच्छा ईमानदार पड़ोसी है.
रही बात पाकिस्तान की तो कसाब, राना, और हेडली के बाद अब अंसारी के बयानों को भी बेशर्मी के साथ झुठलाना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है.
      ....खैर ये तो था पहला पक्ष जिसे दुनिया देख रही है, मैं बात करना चाहता हूँ दूसरे पक्ष की जब मुंबई हमलों के ठीक बाद कई स्वनाम-धन्य भारतीय राजनीतिज्ञ और अन्य महत्वपूर्ण हस्तियों ने अपने –अपने आकलन देने में और देश का रूख दूसरी ओर खींचने में जरा भी शर्म नहीं दिखाई. मैं बात कर रहा हूँ देशी जेम्सबोंड दिग्विजय सिंह की. जिन्होंने ‘भगवा आतंकवाद’ की तरफ इशारा किया और ये तक कह डाला कि मरने से पहले शहीद हेमंत करकरे ने उनसे हिंदू आतंकियों से खतरे की बात की थी. जनाब ने ‘आर.एस.एस.’ के शामिल होने की भी आशंका व्यक्त कर दी. कमोबेश पूर्व मंत्री ए. आर. अंतुले ने भी ये ही कहा और मीडिया भी उन्हें तवज्जो देने लगी.
एक सम्मानित उर्दू दैनिक के संपादक ने तो ‘आर. एस. एस.’ का हाथ होने पर किताब भी लिख डाली जिसका विमोचन स्वयं दिग्विजय सिंह ने किया. संपादक महोदय ने तो ये भी लिख डाला कि सी.एस.टी. पर गोलीबारी करने वाले पुलिस कोंस्टेबल ही थे, और सारा कांड आर.एस.एस. ने प्रज्ञा साध्वी, कर्नल पुरोहित और असीमानंद पर हो रही कार्यवाही का बदला लेने के लिए किया था.
  उस समय, जब देश को एकजुट होने की जरूरत थी तब इन कतिपय महानुभावों ने देश को गुमराह करने की कोशिश की. उन्होंने शहीदों लाश पर भी राजनीति कर डाली और एक पल के लिए हिचके भी नहीं. उन्होने जरा भी नहीं सोचा कि उनकी बातों का देश की जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा.

                           मैं अभी तक ये नहीं समझ पा रहा कि इन्होने ऐसा क्यूँ किया ......... वोट-बैंक की सस्ती राजनीति के लिए या फिर आई.एस.आई. के मकसद को पूरा करने के लिए.      
    
               मेरे इन सवालों का खुद मेरे पास भी कोई जवाब नहीं हैं. आखिर क्यूँ ‘आर.एस.एस.’ जैसे राष्ट्रवादी संगठनों को भी साम्प्रदायिक नजरिये से देखा जाता है? क्या वजह है कि मीडिया बिना तथ्यों को जांचे –परखे हवा देने लगता है ? क्यों हम अवसरवादी राजनीतिज्ञों को हम पर शासन करने का अवसर दे देते हैं ?  
    जब तक हम इन सवालों के सही जवाब नहीं ढूंढ पाते तब तक देश के भविष्य का सही रास्ता तय नहीं हो सकता. हालात ये है कि आज देश में होने वाली हर घटना को एक नए मजहबी नजरिये से देखा जा रहा है. अब जब सारी बाते परत-दर-परत खुल कर सामने आ चुकी है ऐसा क्यूँ नहीं हो रहा कि दिग्विजय सिंह देश के ‘हिंदू समुदाय’ से सार्वजानिक रूप से माफ़ी नहीं मांगते. क्यूँ नहीं अज़ीज़ बर्मी द्वारा लिखी ‘२६/११- आर.एस.एस. की साजिश’ किताब को प्रतिबंधित कर दिया जाता और सुब्रमण्यम स्वामी की तरह उनके खिलाफ भी एक केस चला दिया जाए.
संभवत: ऐसा कुछ नहीं होने वाला क्यूंकि देश को ‘धर्म-निरपेक्षता’ के नए आयाम और ऊँचे प्रतिमान देने वाले लोग अभी भी सत्तासीन है.
                                   . निद्रालीन जनमानस को ‘आनन्द राय’ की शुभकामनाएं. 
   
      

Monday, 23 April 2012

हमें उन्हें 'राष्ट्रपिता' क्यूँ कहना चाहिए ?

कुछ दिनों पूर्व लखनऊ की एक बालिका ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत सरकार से यह पूंछकर कि गांधी जी को राष्ट्रपिता की उपाधि कब और किसने दी एक नई असहजता व हलचल को जन्म दे दिया। इस विषय को मीडिया ने भी ख़ासी वरीयता दी साथ ही कई विचारकों के मध्य भी यह बहस का विषय बना। कई लोगों के अनुसार यह प्रश्न सूचना के अधिकार का निरर्थक प्रयोग अथवा एक बच्ची का बचपना है क्योंकि संबोधनों की तिथि विवरण समेटकर नहीं रखे जाते! मैं इस प्रश्न को एक भिन्न कोण से देखता हूँ क्योंकि यह प्रश्न थोड़े अलग स्वरूप में मेरे मन में बचपन से रहा है, हो सकता है उस बालिका के प्रश्न की भी वही दिशा व आशय हो!“राष्ट्रपिता” उपाधि की तिथि तारीख प्रश्न का केन्द्रबिन्दु नहीं है, स्वाभाविक प्रश्न यह है कि क्या गांधीजी के लिए “राष्ट्रपिता” की उपाधि सही, सार्थक व न्यायोचित  है? “राष्ट्रपिता” शब्द की सार्थकता समझने के लिए पहले “राष्ट्र” व “पिता” का अर्थ समझना होगा। राष्ट्र वस्तुतः जन (प्रजा), संस्कृति व क्षेत्र (भूमि) का समायोजित स्वरूप होता है। जन के पिता होने के दो ही अर्थ हो सकते हैं, एक तो किसी व्यक्ति का किसी समाज में उम्र की दृष्टि से सबसे वरिष्ठ होना जोकि राष्ट्र जैसी विशाल संस्था के संबंध में प्रायोगिक नहीं कहा जा सकता। दूसरा, किसी व्यक्ति की समाज या राष्ट्र की प्रजा के प्रति ऐसे सर्वोच्च अद्वितीय योगदान के लिए सर्व-स्वीकार्यता जिससे सम्पूर्ण प्रजा को जीवन मिला हो क्योंकि जीवनदाता ही पिता है। भारतीय दर्शन के अनुसार जन्म देने वाला, उपनयन करने वाला, विद्या या शिक्षा देने वाला, भोजन देने वाला अर्थात पालन करने वाला तथा जीवन में विभिन्न भय से रक्षा करने वाला, ये पाँच पिता ही होते हैं-जनिता चोपनेता च यस्तु विद्या प्रयच्छति।अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृतः॥ (चाणक्य नीति) निश्चित रूप से किसी राष्ट्र की जनता को स्वतन्त्रता का जीवन दिलाना ऐसा ही महान योगदान कहा जा सकता है। गांधीजी का निश्चित रूप से स्वतन्त्रता आंदोलनों में महान योगदान था व वे उस समय के बहुस्वीकृत नेता अवश्य थे किन्तु सर्वस्वीकृत नहीं! इसमें भी इतिहास के किसी संक्षिप्त जानकार को मतभेद नहीं हो सकता कि गांधीजी स्वतन्त्रता आन्दोलन की अहिंसावादी विचारधारा के नायक अवश्य थे किन्तु उन्हें स्वतन्त्रता का जनक अथवा पिता कदापि नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसा कहना उन हजारों वीर बलिदानियों की उपेक्षा होगी जिन्होंने गांधीजी के भारत आगमन से पहले अथवा उनके जन्म लेने से पूर्व ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपना संपत्ति, परिवार व प्राण दांव पर लगाकर अपने रक्त से मातृभूमि को सींच दिया था। गांधीजी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 में हुआ था जबकि अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता प्राप्ति का महाशंखनाद तो 1857 की क्रांति से ही हो गया था जिसमे लाखों स्त्री-पुरुषों ने अपना बलिदान दिया था। क्रान्ति का केन्द्र रहे बिठूर में रातो-रात 24,000 निहत्थे लोगों की बर्बर हत्या व हजारों स्त्रियॉं का बलात्कार अंग्रेजों द्वारा किया गया था। इस दृष्टि से प्रथम संगठित क्रान्ति का जनक यदि किसी को कहा जा सकता है तो वह वीर मंगल पाण्डेय थे यद्यपि अंग्रेजों के विरुद्ध असंगठित क्रान्ति का इतिहास उनसे भी पुराना है। 1770 में अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू सन्यासियों ने सशस्त्र क्रान्ति का बिगुल बजाया था जिसमें हजारों सन्यासियों ने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये थे। इसके बाद फिर कोल जाति के संघर्ष, भील जाति के विद्रोह, अहोमो की क्रान्ति, चुआर लोगो का विद्रोह, ख़ासी विद्रोह, रमोसी विद्रोह, बधेरा विद्रोह, कच्छ का विद्रोह, दक्षिण में विजयनगर का अंग्रेजों के साथ संघर्ष तथा 1806 के वेल्लौर व 1824 के बैरकपुर के सैनिक विद्रोह जैसी लंबी सूची इतिहास के स्वतन्त्रता अध्यायों में अंकित है, भले ही ये अध्याय इतिहास के राजनीतिकरण के अंधेरे में खो गए हों! अतः गांधीजी स्वतन्त्रता आंदोलन की भव्य श्रंखला की एक कड़ी अवश्य थे किन्तु उसके जनक नहीं! गांधीजी राष्ट्रपिता के रूप में देश के आम जनमानस द्वारा कभी स्वीकार भी नहीं किए गए क्योंकि गांधीजी की नीतियों से न सारा देश खुश ही था और न उनके द्वारा की गई महान घातक भूलों के प्रति संवेदनाहीन! कहा जाता है कि गांधीजी को सर्वप्रथम “राष्ट्रपिता” नेताजी सुभाषचंद्र बोष ने एक सम्बोधन में बोला था व उनसे आशीर्वाद मांगा था। नेताजी व गांधीजी के मध्य विचारात्मक व नीतिगत मतभेद सर्वविदित हैं अतः यह कहना कठिन है गांधीजी के मार्ग के ठीक विपरीत आजाद हिन्द सेना गठित कर अंग्रेजों पर आक्रमण करने के समय यदि नेताजी ने गांधीजी को राष्ट्रपिता बोला तो उनका आशय क्या था! नेताजी गांधी की नीतियों को रूढ व निरर्थक अहिंसा मानते थे वही गांधीजी व नेहरू नेताजी को फासीवादी उग्रवादी कहने में संकोच नहीं करते थे। 1939 के कॉंग्रेस अधिवेशन में गांधीजी के खुले विरोध के बाद भी नेताजी काँग्रेस के प्रधान चुने गए, इतिहासकार इसे गांधीजी की सबसे बड़ी हार मानते हैं। बाद में कॉंग्रेस के अंदर गांधी समर्थकों की बहुलता के कारण नेताजी को पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। इस घटना ने सिद्ध कर दिया था गांधीजी न तो स्वयं सर्वमान्य नेता थे और न उनकी नीतियाँ ही। हालाकि यह सत्य है कि इसके बाद भी नेताजी गांधीजी को पूर्ण सम्मान देते रहे, यह भारत की अद्भुत संस्कृति है।1926 में एकबार चन्द्र्शेखर आजाद गांधी जी से मिले व निवेदन किया कि आप अपने व्यक्तिगत संबोधनों में हम क्रांतिकारियों को आतंकवादी मत कहा करिए यद्यपि हमारे मार्ग पृथक हैं किन्तु हम आपका बहुत सम्मान करते हैं, इसपर गांधीजी ने प्रतिउत्तर दिया कि तुम्हारा मार्ग हिंसा का है और हिंसा का अवलंबन लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति मेरी दृष्टि में आतंकवादी है!! 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल रहे गांधीजी जब 1931 में छूटे और लॉर्ड इरविन के साथ 5मार्च 1931 को इरविन समझौता किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन निष्फल हो चुका था व उस समय भगत सिंह सुखदेव व राजगुरु के साथ जेल मे थे जिनके समर्थन में देश मे भारी जनाक्रोश था। इंग्लैंड के लेबर पार्टी के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री रैमसी मैकडोनाल्ड ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि भगत सिंह आदि का उद्देश्य हत्या आदि का नहीं था। अतः लॉर्ड इरविन पर भगत सिंह मामले पर भारी दबाब था, इरविन ने इस विषय पर समझौते के समय गांधीजी से पूंछा तो गांधीजी ने कहा “मैं भगत सिंह की भावना की कद्र करता हूँ किन्तु हिंसा के किसी पुजारी को छोडने की पैरवी नहीं कर सकता! प्रतिउत्तर में भगत सिंह ने कहा था प्राणों की भीख से अच्छा मैं यहीं प्राण दे दूँ, अच्छा हुआ गांधीजी ने मेरी पैरवी नहीं की। समझौते के 18 दिनों बाद ही 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी पर लटका दिया गया था। इसके लिए गांधीजी की पूरे देश में आलोचना हुई व उन्हें कई स्थानों पर काले झंडे दिखाये गए थे।गांधीजी के स्वतन्त्रता आन्दोलन भी कभी सतत नहीं रहे, 1920 में प्रारम्भ किया गया असहयोग आंदोलन चौरीचौरा-कांड, जिसमें अंग्रेजों की पुलिस चौकी को भीड़ ने जला दिया था, से छुब्ध होकर 1922 में गांधीजी ने वापस ले लिया था और सविनय अवज्ञा आंदोलन तक राजनैतिक रूप से लगभग निष्क्रिय ही रहे जिसका हश्र भी निराशात्मक ही रहा जैसा कि ऊपर स्पष्ट है। गांधीजी “भारत छोड़ो आंदोलन” से पूर्व तक कॉंग्रेस के “डोमिनियन स्टेट” की मांग से ही संतुष्ट थे और पूर्ण स्वराज्य की मांग के इस आंदोलन को भी 1942 के दो वर्ष बाद ही 1944 में जेल से छोड़े जाने पर वापस ले लिया था। इसके अतिरिक्त गांधीजी ने अहिंसा पर अंधश्रद्धा के कारण कई बड़ी भूले की। अंग्रेजों ने द्वतीय विश्वयुद्ध में जर्मनी का साथ देने के कारण तुर्की के खलीफा के विरुद्ध कार्यवाही की, रूढ़िवादी मुसलमानों ने, जोकि भारत में हो रहे अङ्ग्रेज़ी अत्याचार पर तो शान्त थे, इसे इस्लाम पर प्रहार कहते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध खिलाफत आंदोलन खड़ा कर दिया। विपिन चन्द्र पाल व महामना मदनमोहन मालवीय जैसे लोगों की चेतावनी के बाबजूद गांधीजी ने इस सांप्रदायिक-अराष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन किया। खिलाफत को तो अंग्रेजों ने कुचल दिया किन्तु इस्लामी कट्टरपंथ की आग ने दंगों में हजारों निर्दोष हिंदुओं को कत्ल कर दिया। मालाबार में 20,000 हिंदुओं का धर्मपरिवर्तन हुआ, हिन्दू औरतों का बलात्कार हुआ व गर्भवती महिलाओं को मार दिया गया। गांधीजी ने इसे अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान कहकर उन मोपला मुसलमानों की प्रशंसा की, यद्यपि आजाद व भगत सिंह को वे आतंकवादी बताते आए थे। डॉ अंबेडकर ने अपनी पुस्तक “भारत का विभाजन” में इस घटना पर गांधीजी की आलोचना करते हुए लिखा है कि गांधीजी ने ऐसी घटनाओं की आलोचना का कभी साहस नहीं किया। इसी तरह “भारत विभाजन मेरी लाश पर होगा” कहने के बाद भी गांधीजी ने विभाजन स्वीकार कर लिया। देश के एक भाग ने गांधीजी को भी विभाजन का दोषी माना जिससे क्षुब्ध होकर नाथुराम गोडसे ने अतिरेक में गांधीजी की हत्या कर दी।गांधीजी को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों की सेना के लिए घूम घूम कर लोगों को भर्ती करवाने के कारण “भर्ती करवाने वाला एजेंट” कहा जाता था। इसी तरह पाकिस्तान को स्वयं की कंगाली हालत में 56अरब की सहायता देने के लिए अनशन से लेकर दिल्ली की जामा मस्जिद में आश्रय लिए विस्थापित हिन्दुओं को मुसलमानो की आस्था की रक्षा के नाम पर बाहर निकालने की मांग तक गांधीजी की ऐसी ही कई नीतियाँ मुखर आलोचना का शिकार हुईं। इसी प्रकार गांधीजी के सत्य के नग्न प्रयोग भी किसी भी ब्रम्ह्चारी अथवा किसी भी भोगवादी द्वारा समझे अथवा स्वीकारे नहीं जा सकते!गांधीजी ने एक महान प्रयास किया था; कॉंग्रेस को अंग्रेजों की चापलूसी से मुक्त कराना क्योंकि 1885 में ए.ओ हयूम ने जिस कोंग्रेस की स्थापना की थी उसका  उद्देश्य देशव्यापी क्रान्ति को मार्ग से भटकाना था। 1886 के प्रथम सम्मेलन में काँग्रेस के अध्यक्ष पद से दादा भाई नौरोजी ने अंग्रेजों के शासन के कई लाभ गिनाये व बाद में महारानी विक्टोरिया की जय के नारे लगाए गए। लाला लाजपत राय कोंग्रेस को अंग्रेजों का सेफ़्टी वॉल्व कहते थे। इस प्रयास के बाद भी स्वतन्त्रता का सम्पूर्ण श्रेय गांधीजी व उनके आंदोलनों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि कॉंग्रेस सत्ता मे अपनी भागीदारी के लिए केवल “डोमिनियन स्टेट” के दर्जे की मांग ही करती रही थी। स्वतन्त्रता कॉंग्रेस की नीतियों का नहीं द्वितीय विश्व युद्ध का परिणाम थी जिसमे नेताजी सुभाष ने अंग्रेजों की सेना के ही भारतीय सैनिकों को खड़ाकर आजाद हिन्द सेना का गठन किया व अंग्रेज़ो पर आक्रमण किया, अतः युद्ध के बाद कमजोर पड़ चुके इंग्लैंड के सामने भारतीय सेना पर विश्वास उठने के कारण भारत को खाली करने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं बचा था। नौसेना के विद्रोह ने इसे अंतिम रूप दे दिया।अतः इतिहास के संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि गांधीजी जन के पिता के रूप में स्वीकार्य नहीं हो पाये और स्वतन्त्रता के पिता कहे नहीं जा सकते, हाँलाकि उन्हें एक वरिष्ठ स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में स्वीकार करने आपत्ति नहीं की जा सकती।अब यदि संस्कृति की दृष्टि से बात करें तो विश्व की सबसे प्राचीन, महान व सुसंस्कृत सभ्यता का पिता उन्नीसवीं सदी में जन्मा हो, इससे अधिक असंगत कुछ क्या कहा जा सकता है?? भारत की महानतम परंपरा में वाल्मीकि, वेदव्यास, पाणिनि, कपिल, यास्क, शंकराचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, कालिदास व चाणक्य जैसे लाखों उद्भट विद्वान ब्रम्हाण्ड के चरम तक चिंतनशील दार्शनिक व वैज्ञानिक, भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, कबीर, तुलसीदास व रामकृष्ण परमहंस जैसे लाखों महात्मा सन्त, जनक युधिष्ठिर से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, शालिवाहन, महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे लाखों वीर शासक, वीर हकीकत राय व मंगलपाण्डेय से लेकर नाना साहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, वासुदेव बलबंत फडके व तात्या टोपे जैसे लाखों क्रान्तिकारी बलिदानी तथा रामतीर्थ, महर्षि रमण व विवेकानन्द जैसे हजारों आधुनिक काल के विचारकों ने जन्म लिया है किन्तु किसी को राष्ट्रपिता की उपाधि नहीं दी जा सकती क्योंकि इस संस्कृति की गरिमा की ऊंचाई अनन्त है, इसका इतिहास समयातीत है। विश्व में यही एकमात्र राष्ट्र है जहां राष्ट्रभूमि को माँ के परम-पवित्र व सर्वाधिक गरिमामय सम्बोधन से संबोधित करते हैं, उसी राष्ट्रभूमि का कोई पुत्र राष्ट्रपिता कैसे हो सकता है? वन्देमातरम में हम अपने देश को माँ कहकर पुकारते हैं, हमारी यह परम्परा अनादि है। राष्ट्रभूमि हमारी माँ है व भारतीय संस्कृति में पालक रूप से उपास्य विष्णु ही इसके पति व हमारे पिता है।समुद्रवसनेदेवि पर्वतस्तनमंडले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शम् क्षमस्व मे॥ इन शब्दों से हम नित्य इस मातृभूमि को इसी कारण बचपन से प्रणाम करते आए हैं। विष्णु भी जब इस संस्कृति के इतिहास में परम आराध्य राम अथवा कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं तो उन्हें भी राष्ट्रपुरुष कहकर संबोधित किया जाता है राष्ट्रपिता नहीं! श्रीराम स्वयं इस धरती को “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादापि गरीयसी” कहकर माता के सम्बोधन से संबोधित करते हैं। अतः गांधीजी अपनी गलतियों व भूलों के बाद भी देश के लिए किए गए अपने संघर्षों के कारण हम देशवासियों के लिए सम्माननीय हैं, वे एक महान नायक हो सकते हैं, वे महात्मा हो सकते हैं अथवा वे राष्ट्रपुत्र हो सकते हैं किन्तु राष्ट्रपिता कदापि नहीं!! यदि गांधीजी आज होते तो संभवत वे स्वयं इस राष्ट्र के महान गौरव के आगे नतमस्तक होते हुए राष्ट्रपुत्र कहलाने में गर्व अनुभव करते हुए चन्द राजनैतिक स्वार्थियों द्वारा मढ़ी गई राष्ट्रपिता की उपाधि उतार फेंकते!

                                                                          एक मित्र की भावनाओं से प्रेरित लेख
                                                                                                           ' आनन्द राय'

Sunday, 8 January 2012

लोकपाल, आम आदमी और चुनावी माहौल !



                पिछले कुछ दिनों से संसद में देर रात तक चर्चाओं का जो दौर चला है, उससे एक बात तो साफ़ है कि माननीय सांसदगण पब्लिक की डिमांड समझने लगे हैं और ये भी समझ चुके हैं कि अब वो जनता के मालिक नहीं रहे. सही शब्दों में कहा जाए तो अब वे खुद को जनता का सेवक मानने लगे है. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यू.पी.ए. गवर्नमेंट द्वारा लोकपाल बिल के लिए दिखाई गयी जल्दबाजी में दिख जाता है. कैसे रातों में जाग-जाग कर नेताओं-अफसरों ने मिलकर ड्राफ्ट बनाया, कैसे स्टैंडिंग कमिटी ने सारे प्रारूपों को पलक झपकते पढ़ डाला और कैसे ‘कहीं का पत्थर, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ सरीखा बिल बनाकर लोकसभा में पारित कराकर राज्यसभा में डाल दिया गया, सब सोच कर सपने जैसा लगता है कि हमारी संसद में इतनी स्फूर्ति अचानक कहाँ से गयी. आश्चर्य होता है सोचकर कि कानून बनाने की अपनी जटिल और कभी-कभी गूढ़ प्रक्रियाओं के लिए विख्यात भारतीय संसद ने ऐसी अंगड़ाई कैसे ले ली. ............. घोर आश्चर्य!
   असल में ये अन्ना हजारे के कंठ से निकली आम आदमी की वो आवाज थी जो अक्सर अनसुनी कर दी जाती है पर जब अपनी मनवाने पर आ जाये तो सत्ता की चूलें हिला देती है. शिथिल संसद में आई स्फूर्ति आम आदमी की उसी आवाज का परिणाम है जो सत्ता के गलियारों में खो जाया करती थी पर कुछ अनशनों, हड़तालों और थप्पड़ों के बाद ये इतनी भयावह हो गयी कि लोकपाल के नाम पर १९६८ से सो रही सरकार एकाएक जाग पड़ी. पर क्या करियेगा, बिल संसद में आया तो सही पर राजनीतिज्ञों ने राजनीति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और कठोर कानून में अपने बचने का रास्ता बनाते-बनाते लोकपाल को पब्लिक के हाथ में थमा देने वाला झुनझुना बना दिया. कठोरता के नाम पर पेचीदगियां भर दी गयी, संविधान की विरोधाभासी धाराओं का समागम करा दिया गया, राज्य सरकारों और सी.बी.आई. के नाम पर गोल-गोल बातें कर ली गयी, पक्ष-विपक्ष के दोषोरोपन में पब्लिक बेवकूफ बन गयी. मिला-जुलाकर सरकार ने पांच राज्यों में जाकर पब्लिक से वोट मांगने से पहले का होम-वर्क कर लिया. अगर ये बिल पास हो कर कानून बन भी जाता है तो इस बात के पूरे आसार हैं कि सुप्रीम कोर्ट इसे पुनराविलोकन के दौरान विकलांग साबित कर देगी, फिर सरकार की भी बल्ले-बल्ले हो जायेगी क्योंकि सांप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी. 
बहरहाल लोकपाल का जो हो सो हो लेकिन आम आदमी के साथ जो कुछ भी हो रहा है वो कहीं से भी सही नहीं है. अरे भई! जो आदमी दो वक्त की रोटी के जुगाड में लगा रहता है उसे क्या पता अनुच्छेद २५२ में क्या है, अनुच्छेद २५३ में क्या है. संसद की ये बहस हमारे पल्ले नहीं पड़ रही, हमें तो बस ये पता है कि भ्रष्टाचार बढ़ गया है और ये सब अब खत्म हो जाना चाहिए, अब चाहे लोकपाल लाकर खत्म करो या फिर अफसरों, नेताओं को फांसी देकर!
लोकपाल अभी बना नहीं लेकिन लोकपाल में आरक्षण का मांग शुरू हो गयी, मुसलमानों ने न तो कही विद्रोह किया न कहीं बलवा फिर भी ४% आरक्षण देने की ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी समझ में नहीं आया, चुनावी दौर शुरू होने से पहले केंद्र सरकार ने धर्म आधारित आरक्षण देकर बहुत ही ओछी हरकत कर दी जिसकी कीमत आने वाली पीढ़ियों को चुकानी होगी.
एक के बाद एक घपलों, और चुनावी फैसलों ने समझदार और संजीदा देशवासियों को सर पीटने पर मजबूर कर दिया है. किसे चुने किसे नहीं, समझ में नहीं आता, सारे चोर ही तो हैं, अब चोरों में क्या चुनना क्या छोड़ना और क्या गारंटी कि शरीफ होने का दावा करने वाला इंसान जीतने के बाद भी शरीफ ही रहेगा. चुनावों के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई की ऐसी की तैसी हो जाती है पर राजनेता दल बदलने से बाज नहीं आते, हम वोट किसी और को देते हैं और जीतने के बाद हमारा नेता समर्थन किसी और को दे देता है ....... आखिर क्या मतलब है ऐसे सिस्टम का. आप समर्थन लेने-देने के खिलाफ कानून क्यूँ नहीं बना देते, पार्टियों द्वारा चुनावी टिकट के लिए भर्तियों की तर्ज पर लिखित परीक्षाएं क्यूँ नहीं ली जाती? क्यूँ न सांसद या विधायक बनने के लिए न्यूनतम योग्यता ‘स्नातक उत्तीर्ण’ कर दी जाए. और क्यूँ न ऐसा कर दिया जाए कि सरकारी कर्मचारियों की तरह मंत्रियों की भी सेवानिवृत्ति आयु ५८-६२ वर्ष कर दी जाए. अक्सर देखा जाता है कि पैर कब्र में लटके होते हैं और व्यक्ति राष्ट्रीय महत्व के उच्चतम पदों पर आसीन होता है. या फिर चलिए ऐसा कर दें कि दलों की संख्या ही निश्चित कर दें ताकि किसी नए दल का गठन न हो, या फिर यूँ कर दें कि एक निश्चित सीटों की संख्या न पाने पर दल की मान्यता ही खत्म कर दी जाए. ये सब कमाल के परिवर्तन होंगे बशर्ते एक बार इन्हे आजमायें और फिर परिणाम देखें जाए.
             आखिर इतनी मजबूरियाँ क्यूँ है, और कौन सी चीज है जो सिस्टम बदलने के जरूरी कदम उठाने नहीं देती....................... दरअसल ये हमारे प्रशासकों के दिल में बहुत भीतर छुपा हुआ भ्रष्टाचार है जो बाहर से नहीं दिखता और कोई लोकपाल इसे देख भी नहीं सकता.
     समय आ गया है.जब कमीज को ठीक करने के चक्कर में पैबंद पे पैबंद लगा-लगा कर हमने कमीज की हालत खस्ता कर दी है, समय आ गया है, अब इसे बदल देना ही ठीक होगा !
स्वर्गीय दुष्यंत कुमार के शब्दों में ........
 “ हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए.
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गांव से,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए.
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीन में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि, ये सूरत बदलनी चाहिए.”           
            धन्यवाद!
                                  -  आनन्द राय

Thursday, 24 November 2011

And slapping continues!!!

प्यारे भारतीयों !
                      मुझे सुन कर जराभी आश्चर्य नहीं हुआ कि माननीय मंत्री जी को जनाब हरविंदर सिंह ने थप्पड़ मारा. आज नहीं तो कल  किसी को तो पड़ना ही था. ये थप्पड़ अकेले मंत्रीजी को नहीं पूरी सरकार और भ्रष्ट राजनीति  के गाल पर  लगा है. अलबत्ता ये बात अलग है कि सारा गुस्सा मंत्रीजी पर ही क्यूँ., तो भईया सीधी बात ये कि नंबर  सबका लगना है अब किसका पहले किसका बाद में ये नहीं पता. सारी नेता कौम ने इस घटना की कड़ी आलोचना की है और इसे 'जनतंत्र पर हमला',  'लोकतंत्र की  हत्या' और जाने क्या- क्या बताया है. ये सब सुनकर डेल्ही में बाबा रामदेव के साथ रात में सोती हुयी भीड़ पर हुआ सरकारी हमला भी याद आ गया मुझे, क्या वो लोकतंत्र की हत्या नहीं थी?  एक थप्पड़ पर पूरा राजनीतिक गलियारा तिलमिला उठा, प्रशांत भूषण  के साथ कोर्ट परिसर में जो हुआ क्या वो जनतंत्र पर हमला नहीं था ?

मंत्रीजी के समर्थन लगभग सभी नेताओं ने कुछ  न कुछ कहा जो ये दिखाता है  कि मुसीबत में सारे भाई-भाई हो जाते हैं और इलेक्शन में पब्लिक को बेवक़ूफ़ बनाने का काम करते हैं. प्रणब दा ने कहा कि " पता नहीं देश किस ओर जा रहा है". श्रीमान से कोई पूछे कि देश को आगे या पीछे ले जाने की नीतियां कौन बनाता है और रास्ते कौन तय करता है. और आज की स्थिति पैदा करने में सबसे ज्यादा योगदान किस वर्ग का है?
दलगत राजनीति का असर देखिये कि बेचारे यशवंत जी को सीधा पब्लिक को भड़काने का आरोप लगा दिया गया. सभी ये भूल गए कि किस वजह से शरद पवार को ही थप्पड़ लगा जबकि मोस्ट डेसेर्विंग लोगों की भरमार है. चलिए मैं बताये देता हूँ. पवार जी देश के सिर्फ कृषि मंत्री ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र के अधिकांश  चीनी मिलों के  मालिक हैं,  कोटन से लेकर उर्वरक उद्योगों में  भी जनाब की तूती बोलती है. एक तरफ जब विदर्भ के किसान आत्महत्या कर रहे थे , पवार जी आई. पी. एल. की पार्टियों में व्यस्त रहते थे, जनाब का सारा ध्यान कृषि को छोड़कर क्रिकेट में लगा रहता  है और लगे भी क्यूँ नहीं जब आई. सी. सी. के अध्यक्ष  का महत्वपूर्ण  पद उनके पास है. उन्हें रबी, खरीफ और जायद की फसलों का ध्यान भले ही न हो पर क्रिकेट के वार्षिक कैलेंडर का पूरा भान रहता है. सत्ता के गलियारों में जनाब का नाम सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्तियों में गिना जाता है. फसलों के समर्थन मूल्य में उतार चढाव  के प्रश्नों से और अनाज के दामों में बढती मंहगाई के प्रश्नों से वो हमेशा बचते ही रहते थे , किसानो की फ़िक्र तो उन्हें कभी रही ही नहीं फिर आम आदमी के बारे में वो क्या सोचते. बेटी को भी राजनीति में लाकर उन्होंने अपना पारिवारिक दायित्व पूरा कर दिया पर बतौर कृषि मंत्री वो अभी तक कुछ कर नहीं कर सके, उल्टा अपने ही देश की चीनी और गेंहू अधिक उत्पादित बताकर पहले ऑस्ट्रेलिया  को निर्यात किया फिर चार महीने बाद ही खाद्यान्नों की कमी बता कर ऑस्ट्रेलिया से अंतर्राष्ट्रीय कीमतों से ढाई गुना अधिक दामो पर खरीद कर भारत वापस लाये. ऐसी  दूरदर्शी नीति पर उन्हें थप्पड़ नहीं तो क्या दिया जाए. फैसला आप खुद  कर सकते हैं.
थप्पड़ खाने के कुछ देर बाद ही जनाब  पवार ने बेशर्मी का परिचय देते हुए कहा कि  "इस घटना को गंभीरता से ना लें ", पर मैं कहता हूँ कि आपने अगर इसे गंभीरता से नहीं लिया तो वो दिन दूर नहीं जब आप लोगों को संसद में घुसकर थप्पड़ रसीद किये जायेंगे. मैं अपने इस लेख के माध्यम से सभी राजनीतिज्ञों से अपील करता हूँ कि वे प्लीज़ इस घटना को गंभीरता से लें (ख़ास तौर पर दिग्विजय साहब क्यूंकि उनका नंबर कभी भी पड़ सकता है. )  वर्ना सोयी जनता जागने के बाद क्या कर देगी कोई नहीं जानता.
अंत में भाई हरविंदर जी के अदम्य साहस को सलाम करते हुए मैं उन्हें 'सरदारों का सरदार ' की उपाधि से नवाजता हूँ. वरना मनमोहन जी को देख कर कभी यकीं नहीं होता था कि   'सरदार' का गुस्सा क्या होता है.
भाई हरविंदर जी ने आम आदमी की आवाज को नेताओं की कनपटी तक पहुँचाया   जो सीधे और शांतिपूर्ण तरीकों से कभी नहीं पंहुच  सकती थी.


                 आम आदमी की गूँज रही आवाज को सलाम !
                                                                                            .......... धन्यवाद !
                                                                                          ............. आनन्द राय

Saturday, 19 November 2011

UP and cheap politics: Divide and Rule

        जब मैं बच्चा था तो ज्यादा चीज़ें समझ में नहीं नहीं आती थी, और टेंशन भी कम ही रहती थी , ज्यादा से ज्यादा होम वर्क  की या फिर मम्मी के डांटने की टेंशन. इससे बड़ी टेंशन कब हुयी पता ही नहीं चला. थोड़े और बड़े हुए तो बोर्ड - परीक्षा   की टेंशन और ज्यादा बड़े हुए गर्लफ्रेंड की टेंशन. पर अब जब उम्र २५ की हो गयी है तो देश की चिंता सताने लगी है. ऐसा लगता है कि जो कुछ हो रहा है , ठीक नहीं हो रहा. कुछ लोग राजनीति को देश या राज्य से ज्यादा महत्व  दे रहे हैं. जब भी सुनता हूँ कि महाराष्ट्र में राज ठाकरे के लोगों ने यूपी या बिहार के लोगों को मारा तो लगता है जैसे एक चोट मुझे भी आई है. जब मैंने सुना कि होम मिनिस्टर  ने यूपी और बिहार के लोगों को दिल्ली में बढ़ते रेप और चोरी की घटनाओं का कारण बताया तो दुःख  होता है कि क्या यही दिन देखने बाकी रह गए थे आजादी के साठ साल बाद भी.
    यूपी में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं इसलिए सभी पार्टियों ने एक बार फिर से जनता को बेवकूफ बनाना शुरू कर दिया है. एक हद तक सब ठीक लगता है ख़ासतौर से तब तक, जब तक पानी सर के ऊपर  से ना गुजरे. राहुल गाँधी ने भट्टा परसौल गाँव में जाकर कहा " मुझे खुद को भारतीय कहने में शर्म आती है जहाँ किसानों का हक मांगने पर मुझे गिरफ्तार किया जाता है और किसानों को गोली मारी  जाती है " शायद ये  कहते हुए वो भूल गए थे कि वास्तव में गिरफ्तारी क्या होती है. सन २००१ में राहुल गाँधी को यू. एस. ए. के बोस्टन एअरपोर्ट पर ऍफ़.  बी. आई. ने १,६०,००० डोलर के साथ उनकी कोलंबियाई गर्लफ्रेंड समेत  गिरफ्तार किया था. वाजपेयी  जी की मध्यस्थता  के बाद उन्हें छोड़ दिया गया. अपनी इस गिरफ्तारी को छोड़ कर राहुल जी सांकेतिक गिरफ्तारी को हवा देने में नहीं चूके. कमोबेश यही  हाल भाजपा का भी है जो अंतर्कलह को मिटाने से पहले ही यूपी का किला फतह करना चाहती है. समाजवादी पार्टी अपने शासनकाल में हुए 'ला एंड आर्डर' के बुरे हाल को भूल कर मायावती पर ऊंगली उठा रही है.  बात यहीं  तक होती तो ठीक थी,  मायावतीजी जिन्हें अपने शासन के चार सालों तक विकास  के  लिए जरूरी चीज़ों का पता नहीं चला अब कहती हैं कि यूपी के विकास के लिए इसके  चार टुकड़े करना जरूरी है. कोर्ट के फैसलों की अनदेखी करते हुए जिसने लगातार पार्कों के नाम पर पैसे पानी की तरह बहाए, जबकि पूर्वी यूपी में तक़रीबन चार सौ  बच्चे  इन्सेफेलायितिस से जूझते हुए दम तोड़ते रहे. एक तरफ सरकार के सभी  मंत्री कदाचार और भ्रष्टाचार  के आरोपों में घिरते रहे दूसरी तरफ मैडम अपनी ही मूर्तियाँ लगाती रही. पुराने जिलों में ही अभी तक बुनियादी सुविधाओं का विकास नहीं हो पाया था, माननीया ने नए जिलों का सृजन और नामकरण  करना शुरू कर दिया. उनके तुगलकी फैसलों की उनके चाटुकार नौकरशाहों और अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने जमकर वाह वाही की . लेकिन अब जो हो रहा है वो ओछी  राजनीति का सबसे घटिया उदाहरण है. एक गौरवशाली इतिहास के स्वामी राज्य का  भविष्य सस्ती राजनीति की भेंट चढ़ने जा रहा है.  मायावती ने शांत पड़ी जनता के हाथ में ऐसा धारदार हथियार थमा दिया है जो देश को अलग-थलग कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा. किसी ने चार राज्यों के गठन का सिद्धांत नहीं दिया फिर मायावती को इसका राग छेड़ने की क्या आन पड़ी. न तो राज्य में एस बात को लेकर कोई बड़ा आन्दोलन हो रहा था और न ही  तेलंगाना जैसी स्थिति थी  फिर इस भूत को जगाने की क्या जरूरत आ पड़ी.  पार्टियों के एक के बाद एक बयानबाजी से शुरू हुयी टकराव की स्थिति कब भयानक रूप ले लेगी, पता भी नहीं चलेगा.
मैं खुद यूपी का होने के नाते इस बात से कहीं से भी सहमत नहीं हूँ कि यूपी का बंटवारा जरूरी है. किसी राज्य विशेष के विकास के लिए पारदर्शी लोक कल्याणकारी नीतियाँ जरूरी होती है, संसाधनों के सही इस्तेमाल और वितरण की सही प्रणाली जरूरी होती है,  साथ ही शासक वर्ग का नैतिक रूप से शुद्ध होना और नागरिक हितों को पार्टी  हित से ऊपर मानना जरूरी होता है, राज्य स्वतः विकास की राह पर दौड़ने लगेगा. सिर्फ विकास के नाम पर छोट छोटे टुकड़े कर देना समस्या का समाधान नहीं है.
विकास से अलग हट कर बात सोची जाए तो यूपी के पास लोकसभा की ८० सीटें हैं जो दिल्ली की सत्ता का रास्ता तय करती हैं और यूपी को विशेष सम्मान दिलाती हैं. आम चुनावों में पूरे देश की नजर यूपी पर होती है,  
देश में यूपी का अपनी आबादी, अपनी विविधता और अपनी क्षेत्रीय विशालता के कारण अद्वितीय सम्मान है जो चार टुकड़े हो जाने के बाद छिन्न-भिन्न हो जायेगा. मायावती जी की राज्य विभाजन की नीति यूपी के गरिमामयी अतीत को गुजरे जमाने की कहानियाँ बना देगा. आज अगर यूपी को तोड़कर पूर्वांचल, हरित प्रदेश, अवध प्रदेश जैसे चार नए राज्यों का गठन हो जाता हैं तो कल तेलंगाना, बोडोलैंड, खालिस्तान की मांग भी उठेगी जिसे दबाना सरकार के बस की बात नहीं होगी.  एक भारतीय होने के नाते मैं देश के और टुकड़े होते नहीं देख सकता.
यद्यपि नए राज्यों का गठन लम्बी प्रक्रियाओं के बाद होता है लेकिन इस दौरान लोगों में अलगाव को लेकर बढ़ती हुयी वैमनस्यता आम आदमी को चैन से जीने नहीं देगी और अवसरवादी राजनीतिग्य अपनी रोटियाँ सेंकते रहेंगे. एक भारतीय होने के नाते मैं ऐसे किसी भी विचार या प्रस्ताव की खिलाफत करता हूँ जो देश को तोड़ने की बात करता हो और देश की जनता का आह्वान करता हूँ कि वो आगे आये और ऐसे नेताओं के चंगुल से देश को आजाद कराए. इन्हे इनकी औकात दिखाना ज्यादा जरूरी है.
                                                                ............ धन्यवाद
                                                                                                                    आनन्द राय 

Saturday, 12 November 2011

My lost watch and Digvijay Singh.

                              काफी रात हो गयी थी मुझे नींद नहीं आ रही थी. दरअसल मैं परेशान था अपनी चोरी हो गयी घड़ी को लेकर, जो घड़ी मुझे मेरी बीवी ने मुझे हमारी शादी की पहली सालगिरह पर गिफ्ट की थी. चूँकि बेगम साहिबा अगली सुबह मायके से आने वाली थी इसलिए किसी भी भारतीय पति का ऐसे हालात में डरना स्वाभाविक था. गुम हुई घड़ी के बारे में पुलिस को बताने का कोई मतलब तो था नहीं, वैसे ही पुलिस के पास अनसुलझे केसों की भरमार है, एक और केस बढाकर ख्वामखाह पुलिस की क्षमता पर संदेह करना ठीक नहीं लगा, सो मैंने फैसला किया सी. बी. आई. से संपर्क करते हैं. किसी ने कहा कि घड़ी तो मिलेगी नहीं, अलबत्ता घड़ी के चक्कर में राष्ट्रीय महत्व के दूसरे केसों की जांच धीमी पड़ जायेगी. एक घड़ी के लिए देश कि सुरक्षा से खिलवाड वैसे भी मुझे सही नहीं लगा. सोचा जेम्स बोंड से बात करता हूँ, ..........एकाएक दिमाग में विचार आया कि अब बस एक ही शख्स है पूरे भारत में जो घड़ी के बारे में सही सूचना दे सकता है, और वो हैं............................... जनाब दिग्विजय सिंह जी.
अजी अब करना क्या था हमने उनका फोन नंबर लिया, फोन घुमाया और घुमाते ही साहब लाइन पर मिल गए लेकिन थोड़े मायूस से लगे. हाल चाल पूछा तो पता चला कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग आजकल उनकी बातों को हलके में लेने लगा है. मुझे भी सुनकर बड़ा दुख हुआ कि उन जैसे नेता के साथ मीडिया का ये व्यवहार सही नहीं है. भई, क्या हो गया जो नेता बूढा हो गया है, कुछ दांत टूट गए हैं या फिर अपनी पार्टी के लोग उन्हें सीरियसली नहीं लेते. नेता तो नेता होता है. मैंने उन्हें सांत्वना दी और याद कराया उन्हें उनके गौरवशाली अतीत के बारे में. वो भी फूले नहीं समाये और मुझसे काफी खुश हुए. मुझे लगा बस यही मौका है अपना मौका रखने का और त्वरित परिणाम पाने का. मैंने अपनी व्यथा बताई और मदद की गुहार की. सिंह साहब सोच में पड़ गए. उन्होंने केस की गंभीरता को देखते हुए मुझसे दो दिन का वक्त माँगा. मुझे तो घड़ी चाहिए थी फिर वक्त भी तो पुलिस के वक्त से कम था. और फिर दिग्विजय साहब से ज्यादा विश्वसनीय कौन मिलता भला.
ठीक दो दिन बाद सिंह साहब ने केस सुलझा दिया और बताया
“आर. एस. एस. ने घड़ी चुराकर अन्ना को दे दी है और पुलिस उनसे कुछ उगलवा न ले इसलिए अन्ना ने मौनव्रत रख लिया है.”
मुझे तरस आया अन्ना और आर. एस. एस. पर की सिर्फ एक घड़ी के लिए वो इस हद तक जा सकते है. मामला तूल न पकड़ ले इसलिए मैंने सबकुछ बेगम को बता डाला. बेगम ने मेरे गाल सहलाते हुए मुझसे माफ़ी मांगी और कबूल किया कि जल्दी जल्दी में उन्होंने मेरी घड़ी अपनी अटैची में रख ली थी. मुझे थोड़ी शर्म आई सोचा, बिना कारण सिंह साहब को परेशान करने के लिए माफ़ी मांग लूं. ये सुनते ही बीवी ने मेरे गालों पर दो तमाचे रसीद किये और बोली “कुछ सीखते क्यों नहीं देश की जनता से, अपनी घड़ी तो मिल ही गयी है अब दिग्गी साहब दूसरी दिला रहे हैं तो क्या प्रॉब्लम है. अपनी जुबान मनमोहन की तरह बंद रखो मुझे सोनिया समझो और मैंने कुछ दिनों में घड़ियों की दूकान न खुलवा दी तो देखना.” मरता क्या न करता, बीवी की बात माननी पड़ी. फिर भी दिल न माना, और शाम की नमाज में हम दोनों ने सिंह साहब के दिमाग और तबीयत दोनों के सलामती की दुआ मांग ली. अल्लाह उन्हें जल्दी ठीक करे, देश को उनकी जरूरत है.
                                                                                                        धन्यवाद् !
                                                                                                                         ............ आनंद