कुछ दिनों
पूर्व लखनऊ की एक बालिका ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत सरकार से यह पूंछकर
कि गांधी जी को राष्ट्रपिता की उपाधि कब और किसने दी एक नई असहजता व हलचल
को जन्म दे दिया। इस विषय को मीडिया ने भी ख़ासी वरीयता दी साथ ही कई
विचारकों के मध्य भी यह बहस का विषय बना। कई लोगों के अनुसार यह प्रश्न
सूचना के अधिकार का निरर्थक प्रयोग अथवा एक बच्ची का बचपना है क्योंकि
संबोधनों की तिथि विवरण समेटकर नहीं रखे जाते! मैं इस प्रश्न को एक भिन्न
कोण से देखता हूँ क्योंकि यह प्रश्न थोड़े अलग स्वरूप में मेरे मन में बचपन
से रहा है, हो सकता है उस बालिका के प्रश्न की भी वही दिशा व आशय
हो!“राष्ट्रपिता” उपाधि की तिथि तारीख प्रश्न का केन्द्रबिन्दु नहीं है,
स्वाभाविक प्रश्न यह है कि क्या गांधीजी के लिए “राष्ट्रपिता” की उपाधि
सही, सार्थक व न्यायोचित है? “राष्ट्रपिता” शब्द की सार्थकता समझने के लिए पहले
“राष्ट्र” व “पिता” का अर्थ समझना होगा। राष्ट्र वस्तुतः जन (प्रजा),
संस्कृति व क्षेत्र (भूमि) का समायोजित स्वरूप होता है। जन के पिता होने के
दो ही अर्थ हो सकते हैं, एक तो किसी व्यक्ति का किसी समाज में उम्र की
दृष्टि से सबसे वरिष्ठ होना जोकि राष्ट्र जैसी विशाल संस्था के संबंध में प्रायोगिक नहीं कहा जा सकता। दूसरा, किसी व्यक्ति की समाज या राष्ट्र की
प्रजा के प्रति ऐसे सर्वोच्च अद्वितीय योगदान के लिए सर्व-स्वीकार्यता
जिससे सम्पूर्ण प्रजा को जीवन मिला हो क्योंकि जीवनदाता ही पिता है। भारतीय
दर्शन के अनुसार जन्म देने वाला, उपनयन करने वाला, विद्या या शिक्षा देने
वाला, भोजन देने वाला अर्थात पालन करने वाला तथा जीवन में विभिन्न भय से
रक्षा करने वाला, ये पाँच पिता ही होते हैं-जनिता चोपनेता च यस्तु विद्या
प्रयच्छति।अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृतः॥ (चाणक्य नीति) निश्चित
रूप से किसी राष्ट्र की जनता को स्वतन्त्रता का जीवन दिलाना ऐसा ही महान
योगदान कहा जा सकता है। गांधीजी का निश्चित रूप से स्वतन्त्रता आंदोलनों
में महान योगदान था व वे उस समय के बहुस्वीकृत नेता अवश्य थे किन्तु
सर्वस्वीकृत नहीं! इसमें भी इतिहास के किसी संक्षिप्त जानकार को मतभेद नहीं
हो सकता कि गांधीजी स्वतन्त्रता आन्दोलन की अहिंसावादी विचारधारा के नायक
अवश्य थे किन्तु उन्हें स्वतन्त्रता का जनक अथवा पिता कदापि नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसा कहना उन हजारों वीर बलिदानियों की उपेक्षा होगी
जिन्होंने गांधीजी के भारत आगमन से पहले अथवा उनके जन्म लेने से पूर्व ही
स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपना संपत्ति, परिवार व प्राण दांव पर लगाकर
अपने रक्त से मातृभूमि को सींच दिया था। गांधीजी का जन्म 2 अक्टूबर 1869
में हुआ था जबकि अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता प्राप्ति का महाशंखनाद
तो 1857 की क्रांति से ही हो गया था जिसमे लाखों स्त्री-पुरुषों ने अपना
बलिदान दिया था। क्रान्ति का केन्द्र रहे बिठूर में रातो-रात 24,000
निहत्थे लोगों की बर्बर हत्या व हजारों स्त्रियॉं का बलात्कार अंग्रेजों
द्वारा किया गया था। इस दृष्टि से प्रथम संगठित क्रान्ति का जनक यदि किसी
को कहा जा सकता है तो वह वीर मंगल पाण्डेय थे यद्यपि अंग्रेजों के विरुद्ध
असंगठित क्रान्ति का इतिहास उनसे भी पुराना है। 1770 में अंग्रेजों के
विरुद्ध हिन्दू सन्यासियों ने सशस्त्र क्रान्ति का बिगुल बजाया था जिसमें
हजारों सन्यासियों ने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये थे। इसके बाद फिर
कोल जाति के संघर्ष, भील जाति के विद्रोह, अहोमो की क्रान्ति, चुआर लोगो का
विद्रोह, ख़ासी विद्रोह, रमोसी विद्रोह, बधेरा विद्रोह, कच्छ का विद्रोह,
दक्षिण में विजयनगर का अंग्रेजों के साथ संघर्ष तथा 1806 के वेल्लौर व 1824
के बैरकपुर के सैनिक विद्रोह जैसी लंबी सूची इतिहास के स्वतन्त्रता
अध्यायों में अंकित है, भले ही ये अध्याय इतिहास के राजनीतिकरण के अंधेरे
में खो गए हों! अतः गांधीजी स्वतन्त्रता आंदोलन की भव्य श्रंखला की एक कड़ी
अवश्य थे किन्तु उसके जनक नहीं! गांधीजी राष्ट्रपिता के रूप में देश के आम
जनमानस द्वारा कभी स्वीकार भी नहीं किए गए क्योंकि गांधीजी की नीतियों से न
सारा देश खुश ही था और न उनके द्वारा की गई महान घातक भूलों के प्रति
संवेदनाहीन! कहा जाता है कि गांधीजी को सर्वप्रथम “राष्ट्रपिता” नेताजी
सुभाषचंद्र बोष ने एक सम्बोधन में बोला था व उनसे आशीर्वाद मांगा था।
नेताजी व गांधीजी के मध्य विचारात्मक व नीतिगत मतभेद सर्वविदित हैं अतः यह
कहना कठिन है गांधीजी के मार्ग के ठीक विपरीत आजाद हिन्द सेना गठित कर
अंग्रेजों पर आक्रमण करने के समय यदि नेताजी ने गांधीजी को राष्ट्रपिता
बोला तो उनका आशय क्या था! नेताजी गांधी की नीतियों को रूढ व निरर्थक
अहिंसा मानते थे वही गांधीजी व नेहरू नेताजी को फासीवादी उग्रवादी कहने में
संकोच नहीं करते थे। 1939 के कॉंग्रेस अधिवेशन में गांधीजी के खुले विरोध
के बाद भी नेताजी काँग्रेस के प्रधान चुने गए, इतिहासकार इसे गांधीजी की
सबसे बड़ी हार मानते हैं। बाद में कॉंग्रेस के अंदर गांधी समर्थकों की
बहुलता के कारण नेताजी को पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। इस घटना ने सिद्ध
कर दिया था गांधीजी न तो स्वयं सर्वमान्य नेता थे और न उनकी नीतियाँ ही।
हालाकि यह सत्य है कि इसके बाद भी नेताजी गांधीजी को पूर्ण सम्मान देते
रहे, यह भारत की अद्भुत संस्कृति है।1926 में एकबार चन्द्र्शेखर आजाद गांधी
जी से मिले व निवेदन किया कि आप अपने व्यक्तिगत संबोधनों में हम
क्रांतिकारियों को आतंकवादी मत कहा करिए यद्यपि हमारे मार्ग पृथक हैं
किन्तु हम आपका बहुत सम्मान करते हैं, इसपर गांधीजी ने प्रतिउत्तर दिया कि
तुम्हारा मार्ग हिंसा का है और हिंसा का अवलंबन लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति
मेरी दृष्टि में आतंकवादी है!! 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल रहे
गांधीजी जब 1931 में छूटे और लॉर्ड इरविन के साथ 5मार्च 1931 को इरविन
समझौता किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन निष्फल हो चुका था व उस समय भगत सिंह
सुखदेव व राजगुरु के साथ जेल मे थे जिनके समर्थन में देश मे भारी जनाक्रोश
था। इंग्लैंड के लेबर पार्टी के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री रैमसी मैकडोनाल्ड
ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि भगत सिंह आदि का उद्देश्य हत्या
आदि का नहीं था। अतः लॉर्ड इरविन पर भगत सिंह मामले पर भारी दबाब था,
इरविन ने इस विषय पर समझौते के समय गांधीजी से पूंछा तो गांधीजी ने कहा
“मैं भगत सिंह की भावना की कद्र करता हूँ किन्तु हिंसा के किसी पुजारी को
छोडने की पैरवी नहीं कर सकता! प्रतिउत्तर में भगत सिंह ने कहा था प्राणों
की भीख से अच्छा मैं यहीं प्राण दे दूँ, अच्छा हुआ गांधीजी ने मेरी पैरवी
नहीं की। समझौते के 18 दिनों बाद ही 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी पर लटका
दिया गया था। इसके लिए गांधीजी की पूरे देश में आलोचना हुई व उन्हें कई
स्थानों पर काले झंडे दिखाये गए थे।गांधीजी के स्वतन्त्रता आन्दोलन भी कभी
सतत नहीं रहे, 1920 में प्रारम्भ किया गया असहयोग आंदोलन चौरीचौरा-कांड,
जिसमें अंग्रेजों की पुलिस चौकी को भीड़ ने जला दिया था, से छुब्ध होकर
1922 में गांधीजी ने वापस ले लिया था और सविनय अवज्ञा आंदोलन तक राजनैतिक
रूप से लगभग निष्क्रिय ही रहे जिसका हश्र भी निराशात्मक ही रहा जैसा कि
ऊपर स्पष्ट है। गांधीजी “भारत छोड़ो आंदोलन” से पूर्व तक कॉंग्रेस के
“डोमिनियन स्टेट” की मांग से ही संतुष्ट थे और पूर्ण स्वराज्य की मांग के
इस आंदोलन को भी 1942 के दो वर्ष बाद ही 1944 में जेल से छोड़े जाने पर
वापस ले लिया था। इसके अतिरिक्त गांधीजी ने अहिंसा पर अंधश्रद्धा के कारण
कई बड़ी भूले की। अंग्रेजों ने द्वतीय विश्वयुद्ध में जर्मनी का साथ देने
के कारण तुर्की के खलीफा के विरुद्ध कार्यवाही की, रूढ़िवादी मुसलमानों ने,
जोकि भारत में हो रहे अङ्ग्रेज़ी अत्याचार पर तो शान्त थे, इसे इस्लाम पर
प्रहार कहते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध खिलाफत आंदोलन खड़ा कर दिया। विपिन
चन्द्र पाल व महामना मदनमोहन मालवीय जैसे लोगों की चेतावनी के बाबजूद
गांधीजी ने इस सांप्रदायिक-अराष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन किया। खिलाफत को तो
अंग्रेजों ने कुचल दिया किन्तु इस्लामी कट्टरपंथ की आग ने दंगों में
हजारों निर्दोष हिंदुओं को कत्ल कर दिया। मालाबार में 20,000 हिंदुओं का
धर्मपरिवर्तन हुआ, हिन्दू औरतों का बलात्कार हुआ व गर्भवती महिलाओं को मार दिया गया। गांधीजी ने इसे अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान
कहकर उन मोपला मुसलमानों की प्रशंसा की, यद्यपि आजाद व भगत सिंह को वे
आतंकवादी बताते आए थे। डॉ अंबेडकर ने अपनी पुस्तक “भारत का विभाजन” में इस
घटना पर गांधीजी की आलोचना करते हुए लिखा है कि गांधीजी ने ऐसी घटनाओं की
आलोचना का कभी साहस नहीं किया। इसी तरह “भारत विभाजन मेरी लाश पर होगा”
कहने के बाद भी गांधीजी ने विभाजन स्वीकार कर लिया। देश के एक भाग ने
गांधीजी को भी विभाजन का दोषी माना जिससे क्षुब्ध होकर नाथुराम गोडसे ने
अतिरेक में गांधीजी की हत्या कर दी।गांधीजी को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान
अंग्रेजों की सेना के लिए घूम घूम कर लोगों को भर्ती करवाने के कारण “भर्ती
करवाने वाला एजेंट” कहा जाता था। इसी तरह पाकिस्तान को स्वयं की कंगाली
हालत में 56अरब की सहायता देने के लिए अनशन से लेकर दिल्ली की जामा मस्जिद
में आश्रय लिए विस्थापित हिन्दुओं को मुसलमानो की आस्था की रक्षा के नाम पर
बाहर निकालने की मांग तक गांधीजी की ऐसी ही कई नीतियाँ मुखर आलोचना का
शिकार हुईं। इसी प्रकार गांधीजी के सत्य के नग्न प्रयोग भी किसी भी
ब्रम्ह्चारी अथवा किसी भी भोगवादी द्वारा समझे अथवा स्वीकारे नहीं जा सकते!गांधीजी ने एक महान प्रयास किया था; कॉंग्रेस को अंग्रेजों की चापलूसी
से मुक्त कराना क्योंकि 1885 में ए.ओ हयूम ने जिस कोंग्रेस की स्थापना की
थी उसका उद्देश्य देशव्यापी क्रान्ति को मार्ग से भटकाना था। 1886 के
प्रथम सम्मेलन में काँग्रेस के अध्यक्ष पद से दादा भाई नौरोजी ने अंग्रेजों
के शासन के कई लाभ गिनाये व बाद में महारानी विक्टोरिया की जय के नारे
लगाए गए। लाला लाजपत राय कोंग्रेस को अंग्रेजों का सेफ़्टी वॉल्व कहते थे।
इस प्रयास के बाद भी स्वतन्त्रता का सम्पूर्ण श्रेय गांधीजी व उनके
आंदोलनों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि कॉंग्रेस सत्ता मे अपनी भागीदारी
के लिए केवल “डोमिनियन स्टेट” के दर्जे की मांग ही करती रही थी।
स्वतन्त्रता कॉंग्रेस की नीतियों का नहीं द्वितीय विश्व युद्ध का परिणाम थी
जिसमे नेताजी सुभाष ने अंग्रेजों की सेना के ही भारतीय सैनिकों को खड़ाकर
आजाद हिन्द सेना का गठन किया व अंग्रेज़ो पर आक्रमण किया, अतः युद्ध के बाद
कमजोर पड़ चुके इंग्लैंड के सामने भारतीय सेना पर विश्वास उठने के कारण
भारत को खाली करने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं बचा था। नौसेना के
विद्रोह ने इसे अंतिम रूप दे दिया।अतः इतिहास के संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट
है कि गांधीजी जन के पिता के रूप में स्वीकार्य नहीं हो पाये और
स्वतन्त्रता के पिता कहे नहीं जा सकते, हाँलाकि उन्हें एक वरिष्ठ
स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में स्वीकार करने आपत्ति नहीं की जा सकती।अब
यदि संस्कृति की दृष्टि से बात करें तो विश्व की सबसे प्राचीन, महान व
सुसंस्कृत सभ्यता का पिता उन्नीसवीं सदी में जन्मा हो, इससे अधिक असंगत कुछ
क्या कहा जा सकता है?? भारत की महानतम परंपरा में वाल्मीकि, वेदव्यास,
पाणिनि, कपिल, यास्क, शंकराचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, कालिदास व चाणक्य
जैसे लाखों उद्भट विद्वान ब्रम्हाण्ड के चरम तक चिंतनशील दार्शनिक व
वैज्ञानिक, भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, कबीर, तुलसीदास व रामकृष्ण
परमहंस जैसे लाखों महात्मा सन्त, जनक युधिष्ठिर से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य
विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, शालिवाहन, महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे लाखों
वीर शासक, वीर हकीकत राय व मंगलपाण्डेय से लेकर नाना साहब पेशवा, रानी
लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, वासुदेव बलबंत फडके व तात्या टोपे जैसे लाखों
क्रान्तिकारी बलिदानी तथा रामतीर्थ, महर्षि रमण व विवेकानन्द जैसे हजारों
आधुनिक काल के विचारकों ने जन्म लिया है किन्तु किसी को राष्ट्रपिता की
उपाधि नहीं दी जा सकती क्योंकि इस संस्कृति की गरिमा की ऊंचाई अनन्त है, इसका इतिहास समयातीत है। विश्व में यही एकमात्र
राष्ट्र है जहां राष्ट्रभूमि को माँ के परम-पवित्र व सर्वाधिक गरिमामय
सम्बोधन से संबोधित करते हैं, उसी राष्ट्रभूमि का कोई पुत्र राष्ट्रपिता
कैसे हो सकता है? वन्देमातरम में हम अपने देश को माँ कहकर पुकारते हैं,
हमारी यह परम्परा अनादि है। राष्ट्रभूमि हमारी माँ है व भारतीय संस्कृति
में पालक रूप से उपास्य विष्णु ही इसके पति व हमारे पिता
है।समुद्रवसनेदेवि पर्वतस्तनमंडले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शम्
क्षमस्व मे॥ इन शब्दों से हम नित्य इस मातृभूमि को इसी कारण बचपन से प्रणाम
करते आए हैं। विष्णु भी जब इस संस्कृति के इतिहास में परम आराध्य राम अथवा
कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं तो उन्हें भी राष्ट्रपुरुष कहकर संबोधित
किया जाता है राष्ट्रपिता नहीं! श्रीराम स्वयं इस धरती को “जननी
जन्मभूमिश्च स्वर्गादापि गरीयसी” कहकर माता के सम्बोधन से संबोधित करते
हैं। अतः गांधीजी अपनी गलतियों व भूलों के बाद भी देश के लिए किए गए अपने
संघर्षों के कारण हम देशवासियों के लिए सम्माननीय हैं, वे एक महान नायक हो सकते हैं, वे महात्मा हो सकते हैं अथवा वे राष्ट्रपुत्र हो सकते हैं
किन्तु राष्ट्रपिता कदापि नहीं!! यदि गांधीजी आज होते तो संभवत वे स्वयं इस
राष्ट्र के महान गौरव के आगे नतमस्तक होते हुए राष्ट्रपुत्र कहलाने में
गर्व अनुभव करते हुए चन्द राजनैतिक स्वार्थियों द्वारा मढ़ी गई राष्ट्रपिता
की उपाधि उतार फेंकते!
एक मित्र की भावनाओं से प्रेरित लेख
' आनन्द राय'