Sunday 8 January 2012

लोकपाल, आम आदमी और चुनावी माहौल !



                पिछले कुछ दिनों से संसद में देर रात तक चर्चाओं का जो दौर चला है, उससे एक बात तो साफ़ है कि माननीय सांसदगण पब्लिक की डिमांड समझने लगे हैं और ये भी समझ चुके हैं कि अब वो जनता के मालिक नहीं रहे. सही शब्दों में कहा जाए तो अब वे खुद को जनता का सेवक मानने लगे है. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यू.पी.ए. गवर्नमेंट द्वारा लोकपाल बिल के लिए दिखाई गयी जल्दबाजी में दिख जाता है. कैसे रातों में जाग-जाग कर नेताओं-अफसरों ने मिलकर ड्राफ्ट बनाया, कैसे स्टैंडिंग कमिटी ने सारे प्रारूपों को पलक झपकते पढ़ डाला और कैसे ‘कहीं का पत्थर, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ सरीखा बिल बनाकर लोकसभा में पारित कराकर राज्यसभा में डाल दिया गया, सब सोच कर सपने जैसा लगता है कि हमारी संसद में इतनी स्फूर्ति अचानक कहाँ से गयी. आश्चर्य होता है सोचकर कि कानून बनाने की अपनी जटिल और कभी-कभी गूढ़ प्रक्रियाओं के लिए विख्यात भारतीय संसद ने ऐसी अंगड़ाई कैसे ले ली. ............. घोर आश्चर्य!
   असल में ये अन्ना हजारे के कंठ से निकली आम आदमी की वो आवाज थी जो अक्सर अनसुनी कर दी जाती है पर जब अपनी मनवाने पर आ जाये तो सत्ता की चूलें हिला देती है. शिथिल संसद में आई स्फूर्ति आम आदमी की उसी आवाज का परिणाम है जो सत्ता के गलियारों में खो जाया करती थी पर कुछ अनशनों, हड़तालों और थप्पड़ों के बाद ये इतनी भयावह हो गयी कि लोकपाल के नाम पर १९६८ से सो रही सरकार एकाएक जाग पड़ी. पर क्या करियेगा, बिल संसद में आया तो सही पर राजनीतिज्ञों ने राजनीति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और कठोर कानून में अपने बचने का रास्ता बनाते-बनाते लोकपाल को पब्लिक के हाथ में थमा देने वाला झुनझुना बना दिया. कठोरता के नाम पर पेचीदगियां भर दी गयी, संविधान की विरोधाभासी धाराओं का समागम करा दिया गया, राज्य सरकारों और सी.बी.आई. के नाम पर गोल-गोल बातें कर ली गयी, पक्ष-विपक्ष के दोषोरोपन में पब्लिक बेवकूफ बन गयी. मिला-जुलाकर सरकार ने पांच राज्यों में जाकर पब्लिक से वोट मांगने से पहले का होम-वर्क कर लिया. अगर ये बिल पास हो कर कानून बन भी जाता है तो इस बात के पूरे आसार हैं कि सुप्रीम कोर्ट इसे पुनराविलोकन के दौरान विकलांग साबित कर देगी, फिर सरकार की भी बल्ले-बल्ले हो जायेगी क्योंकि सांप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी. 
बहरहाल लोकपाल का जो हो सो हो लेकिन आम आदमी के साथ जो कुछ भी हो रहा है वो कहीं से भी सही नहीं है. अरे भई! जो आदमी दो वक्त की रोटी के जुगाड में लगा रहता है उसे क्या पता अनुच्छेद २५२ में क्या है, अनुच्छेद २५३ में क्या है. संसद की ये बहस हमारे पल्ले नहीं पड़ रही, हमें तो बस ये पता है कि भ्रष्टाचार बढ़ गया है और ये सब अब खत्म हो जाना चाहिए, अब चाहे लोकपाल लाकर खत्म करो या फिर अफसरों, नेताओं को फांसी देकर!
लोकपाल अभी बना नहीं लेकिन लोकपाल में आरक्षण का मांग शुरू हो गयी, मुसलमानों ने न तो कही विद्रोह किया न कहीं बलवा फिर भी ४% आरक्षण देने की ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी समझ में नहीं आया, चुनावी दौर शुरू होने से पहले केंद्र सरकार ने धर्म आधारित आरक्षण देकर बहुत ही ओछी हरकत कर दी जिसकी कीमत आने वाली पीढ़ियों को चुकानी होगी.
एक के बाद एक घपलों, और चुनावी फैसलों ने समझदार और संजीदा देशवासियों को सर पीटने पर मजबूर कर दिया है. किसे चुने किसे नहीं, समझ में नहीं आता, सारे चोर ही तो हैं, अब चोरों में क्या चुनना क्या छोड़ना और क्या गारंटी कि शरीफ होने का दावा करने वाला इंसान जीतने के बाद भी शरीफ ही रहेगा. चुनावों के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई की ऐसी की तैसी हो जाती है पर राजनेता दल बदलने से बाज नहीं आते, हम वोट किसी और को देते हैं और जीतने के बाद हमारा नेता समर्थन किसी और को दे देता है ....... आखिर क्या मतलब है ऐसे सिस्टम का. आप समर्थन लेने-देने के खिलाफ कानून क्यूँ नहीं बना देते, पार्टियों द्वारा चुनावी टिकट के लिए भर्तियों की तर्ज पर लिखित परीक्षाएं क्यूँ नहीं ली जाती? क्यूँ न सांसद या विधायक बनने के लिए न्यूनतम योग्यता ‘स्नातक उत्तीर्ण’ कर दी जाए. और क्यूँ न ऐसा कर दिया जाए कि सरकारी कर्मचारियों की तरह मंत्रियों की भी सेवानिवृत्ति आयु ५८-६२ वर्ष कर दी जाए. अक्सर देखा जाता है कि पैर कब्र में लटके होते हैं और व्यक्ति राष्ट्रीय महत्व के उच्चतम पदों पर आसीन होता है. या फिर चलिए ऐसा कर दें कि दलों की संख्या ही निश्चित कर दें ताकि किसी नए दल का गठन न हो, या फिर यूँ कर दें कि एक निश्चित सीटों की संख्या न पाने पर दल की मान्यता ही खत्म कर दी जाए. ये सब कमाल के परिवर्तन होंगे बशर्ते एक बार इन्हे आजमायें और फिर परिणाम देखें जाए.
             आखिर इतनी मजबूरियाँ क्यूँ है, और कौन सी चीज है जो सिस्टम बदलने के जरूरी कदम उठाने नहीं देती....................... दरअसल ये हमारे प्रशासकों के दिल में बहुत भीतर छुपा हुआ भ्रष्टाचार है जो बाहर से नहीं दिखता और कोई लोकपाल इसे देख भी नहीं सकता.
     समय आ गया है.जब कमीज को ठीक करने के चक्कर में पैबंद पे पैबंद लगा-लगा कर हमने कमीज की हालत खस्ता कर दी है, समय आ गया है, अब इसे बदल देना ही ठीक होगा !
स्वर्गीय दुष्यंत कुमार के शब्दों में ........
 “ हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए.
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गांव से,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए.
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीन में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि, ये सूरत बदलनी चाहिए.”           
            धन्यवाद!
                                  -  आनन्द राय

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